सोमवार, 22 दिसंबर 2014

आयुर्वेद Ayurveda

शरीर, इन्द्रीय और आत्मा के संयोग का नाम आयु है। नित्य
प्रति चलने से कभी भी एक क्षण न रूकने से इसे आयु कहते हैं। आयु
का ज्ञान जिस विद्या से प्राप्त किया जाता है वह
आयुर्वेद है। ज्ञान का प्रारम्भ सृष्टि से पूर्व हुआ यह सुश्रुत
संहिता कहती है। अतः पहले आयुर्वेद उत्पन्न हुआ उसके बाद
प्रजा उत्पन्न हुई।
जीवन के लिए क्या उपयोगी है क्या अनुपयोगी यह ज्ञान
जो शास्त्र दे वही आयुर्वेद है। इसी कारण आयु
सम्बन्धी ज्ञान शाश्वत है। केवल इसका बोध और उपदेश मात्र
ही ग्रन्थों में कहा गया है।
वेद शब्द का अर्थ ज्ञान है विद् ज्ञाने। यह आयुर्वेद अथर्ववेद
का जिसका कि सम्बन्ध मानव जीवन के साथ अधिक है।
इसमें ज्ञान, कर्म, उपासना तीनो का समावेश है। इसी लिए
आयुर्वेद को वेद का उपांग माना गया है। आयु का पर्याय
चेतना अनुबन्ध, जीवितानुबन्ध है।
आयु का सम्बन्ध केवल शरीर से नहीं है और इसका ज्ञान
भी आयुर्वेद नहीं है। शरीर, इन्द्रिय, मन और आत्मा इन
चारों का ज्ञान आयुर्वेद है।
शरीर आत्मा का भोगायतन पंच महाभूत विकारात्मक है।
इन्द्रियाँ भोग का साधन है, मन अन्तः करण है, आत्मा मोक्ष
या ज्ञान प्राप्त करने वाला; इन चारों का अदृष्ट-कर्मवश
जो संयोग होता है वही आयु है। इसी आयु के हित-अहित, सुख-
दुख का ज्ञान तथा आयु का मान जहाँ कहीं हो उसे आयुर्वेद
कहते हैं। वेदों में भी इसी का ज्ञान है।
इसीलिए महर्षि काश्यप का कथन है कि जिस प्रकार से
हाथ में चार अँगुली और पाँचवा अँगूठा है वह एक ही हाथ में
रहता हुआ भी नाम और रूप से भिन्न है और सब अँगुलियों पर
अँगूठा शासन करता है उसी प्रकार चारों वेद के साथ
रहता हुआ भी पाँचवा आयुर्वेद इन सबमें मुख्य है। इसी से
कवि कालीदास ने कहा है धर्म का मुख्य साधन शरीर है।
आयुर्वेद ग्रन्थों में संसार में रोग नही थे। सभी प्राणी रोग
रहित आनन्द पूर्वक रहते थे। आयुर्वेद ग्रन्थों में रोग के जगत में
प्रारम्भ होने के कारण भी दिये हैं। सती के शरीर के दक्ष यज्ञ
में अबग्न में प्रज्ज्वलित होने के बाद शिव के क्रुद्ध होने के
कारण ज्वर की उत्पत्ति हुई उससे पहले पृथ्वी पर ज्वर (बुखार)
रोग ही नहीं था।
वेदों में रोग के तीन कारण बतलाये गये हैं -
1. शरीर अर्गृगत विष – जिसके लिए यक्ष्म शब्द आता है।
2. रोगों का कारण कृमि – अथर्ववेद 5/29-9-7 में अन्न, जल
आदि पदार्थों में प्रवेश करके कृमि शरीर में प्रवेश करते हैं तब वह
व्यक्ति को रोगी कर देते हैं। यजुर्वेद 46/6 में लिखा है जल
आदि के द्वारा जूठे पात्रों में कृमि लगे रहते हैं । इन पात्रों में
भोजन करने वाले के शरीर में यह कृमि पहुँचते हैं और रोग फैलाते
हैं।
3. वात, पित्त, कफ तीसरा कारण इन तीनों का विकृत
हो जाना है।
वेदों में कहीं-कहीं पर कृमियों को ही राक्षस कहा गया है
वही इनके रूप और कार्य को बतलाया गया है। वेदों में 100 से
अधिक प्रकार के कृमियों का नाम पं॰ रामगोपाल
शास्त्री जी ने वेदों में से एकत्र करके बतलाया है।
आयुर्वेद अनुसार रोग के दो अधिष्ठान है- मन और शरीर। मन के
दो दोष हैं- रज और तम। गईं बार शरीर स्वस्थ दीखता है परन्तु
मन अस्वस्थ रहता है और वही मानसिक रोग के लक्षण शरीर में
प्रकट होकर मनौदैहिक रोग कहलाते हैं।
मन की महत्वता यजुर्वेद में निम्न प्रकार से बतायी गयी है- मन
प्राणियों के अन्दर अमृत रूप है, मन के बिना कोई भी कर्म
किया नहीं जा सकता। यह शरीर रूपी रथ को मन
रूपी सारथी ही चलाता है। मन के बल से बहुत से रोग नष्ट होते
हैं।
यजुर्वेद में औषधियों के लिए बहुत से मन्त्र आये हैं वही मन्त्र
औषधियों के स्वरूप, महत्त्व और गुण को प्रकट करते हैं।
यजुर्वेद में कहा गया है- जो वृक्ष फूल, पत्ते और फलों के बोझ
को उठाये हुए धूप की तपन और शीत की पीड़ा को सहन
करता है तथा दूसरों के सुख के लिए अपना शरीर अर्पित कर
देता है उस वंदनीय श्रेष्ठ तरू के लिए नमस्कार है।
आयुर्वेद का मूल आधार त्रिदोष वात, पित्त, कफ है। यह
त्रिदोष मूल रूप से त्रिगुणात्मक प्रकृति पर आधारित है।
शरीर में दोषों की व्यापकता दूध के अन्दर व्याप्त
घी की भांति है शरीर के प्रत्येक धातु में, प्रत्येक कण में ये
तीनो दोष रहते हैं। शरीर के जिस भाग में जो दोष अधिक
परिमाण में रहता है, उसे सामान्य भाषा में उस दोष
का स्थान कहते हैं। इस दृष्टि से नाभि से नीचे का स्थान वायु
का, नाभि से ऊपर गले तक पित्त का स्थान है तथा गले से सिर
तक में कफ का स्थान है। सामान्यतः सत्व को पित्त, रज
को वायु और कफ को तमो कारक माना है। शरीर में वात-
पित्त-कफ का वही स्थान है जो प्रकृति में सत्व, रज, तम का है।

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