बुधवार, 17 दिसंबर 2014

आयुर्वेद विश्व की प्राचीनतम चिकित्सा प्रणालियों में से एक है।

आयुर्वेद विश्व की प्राचीनतम चिकित्सा प्रणालियों में से एक
है।
यह अथर्ववेद का उपवेद है। यह विज्ञान , कला और दर्शन
का मिश्रण है। ‘आयुर्वेद’ नाम का अर्थ है, ‘जीवन का ज्ञान’
और यही संक्षेप में आयुर्वेद का सार है। हिताहितं सुखं
दुःखमायुस्तस्य हिताहितम्। मानं च तच्च यत्रोक्तमायुर्वेदः स
उच्यते।।-(च.सू.1/41) आयु+वेद=आयुर्वेद आयुर्वेद और आयुर्विज्ञान
दोनों ही चिकित्साशास्त्र हैं परंतु व्यवहार में
चिकित्साशास्त्र के प्राचीन भारतीय ढंग को आयुर्वेद कहते हैं
और ऐलोपैथिक प्रणाली (जनता की भाषा में "डाक्टरी')
को आयुर्विज्ञान का नाम दिया जाता है।
इस शास्त्र के आदि आचार्य अश्विनीकुमार माने जाते हैं
जिन्होनें दक्ष प्रजापति के धड़ में बकरे का सिर जोड़ा था।
अश्विनीकुमारों से इंद्र ने यह विद्या प्राप्त की। इंद्र ने धन्वंतरि
को सिखाया। काशी के राजा दिवोदास धन्वंतरि के अवतार
कहे गए हैं। उनसे जाकर सुश्रुत ने आयुर्वेद पढ़ा। अत्रि और भरद्वाज
भी इस शास्त्र के प्रवर्तक माने जाते हैं। आय़ुर्वेद के आचार्य ये हैं—
अश्विनीकुमार, धन्वतरि, दिवोदास (काशिराज), नकुल, सहदेव,
अर्कि, च्यवन, जनक, बुध, जावाल, जाजलि, पैल, करथ, अगस्त,
अत्रि तथा उनके छः शिष्य (अग्निवेश, भेड़, जातूकर्ण, पराशर,
सीरपाणि हारीत), सुश्रुत और चरक।



इतिहास
पुरातत्ववेत्ताओं के अनुसार संचार की प्राचीनतम् पुस्तक ऋग्वेद
है। विभिन्न विद्वानों ने इसका रचना काल ईसा के ३,००० से
५०,००० वर्ष पूर्व तक का माना है। इस संहिता में भी आयुर्वेद के
अतिमहत्त्व के सिद्धान्त यत्र-तत्र विकीर्ण है। चरक , सुश्रुत ,
काश्यप आदि मान्य ग्रन्थ आयुर्वेद को अथर्ववेद का उपवेद मानते
हैं। इससे आयुर्वेद की प्राचीनता सिद्ध होती है। अतः हम कह
सकते हैं कि आयुर्वेद की रचनाकाल ईसा पूर्व ३,००० से ५०,०००
वर्ष पहले यानि सृष्टि की उत्पत्ति के आस-पास या साथ
का ही है।
आयुर्वेद के ऐतिहासिक ज्ञान के संदर्भ में सर्वप्रथम ज्ञान
का उल्लेख, चरक मत के अनुसार मृत्युलोक में आयुर्वेद के अवतरण के
साथ- अग्निवेश का नामोल्लेख है। सर्वप्रथम ब्रह्मा से
प्रजापति ने, प्रजापति से अश्विनी कुमारों ने, उनसे इन्द्र ने और
इन्द्र से भारद्वाज ने आयुर्वेद का अध्ययन किया। च्यवन ऋषि
का कार्यकाल भी अश्विनी कुमारों का समकालीन
माना गया है। आयुर्वेद के विकास मे ऋषि च्यवन
का अतिमहत्त्वपूर्ण योगदान है। फिर भारद्वाज ने आयुर्वेद के
प्रभाव से दीर्घ सुखी और आरोग्य जीवन प्राप्त कर अन्य
ऋषियों में उसका प्रचार किया। तदनन्तर पुनर्वसु आत्रेय ने
अग्निवेश , भेल, जतू, पाराशर, हारीत और क्षारपाणि नामक
छः शिष्यों को आयुर्वेद का उपदेश दिया। इन छः शिष्यों में
सबसे अधिक बुद्धिमान अग्निवेश ने सर्वप्रथम एक
संहिता का निर्माण किया- अग्निवेश तंत्र
का जिसका प्रतिसंस्कार बाद में चरक ने किया और
उसका नाम चरकसंहिता पड़ा, जो आयुर्वेद का आधार स्तंभ है।
सुश्रुत के अनुसार काशीराज दिवोदास के रूप में अवतरित
भगवान धन्वन्तरि के पास अन्य महर्षिर्यों के साथ सुश्रुत जब
आयुर्वेद का अध्ययन करने हेतु गये और उनसे आवेदन किया। उस समय
भगवान धन्वन्तरि ने उन लोगों को उपदेश करते हुए
कहा कि सर्वप्रथम स्वयं ब्रह्मा ने सृष्टि उत्पादन पूर्व
ही अथर्ववेद के उपवेद आयुर्वेद को एक सहस्र अध्याय- शत सहस्र
श्लोकों में प्रकाशित किया और पुनः मनुष्य
को अल्पमेधावी समझकर इसे आठ अंगों में विभक्त कर दिया।
इस प्रकार धन्वन्तरि ने भी आयुर्वेद का प्रकाशन ब्रह्मदेव
द्वारा ही प्रतिपादित किया हुआ माना है। पुनः भगवान
धन्वन्तरि ने कहा कि ब्रह्मा से दक्ष प्रजापति, उनसे
अश्विनीकुमार द्वय तथा उनसे इन्द्र ने आयुर्वेद का अध्ययन
किया।
चरक संहिता तथा सुश्रुत संहिता में वर्णित इतिहास एवं आयुर्वेद
के अवतरण के क्रम में क्रमशः आत्रेय सम्प्रदाय
तथा धन्वन्तरि सम्प्रदाय ही मान्य है।
चरक मतानुसार - आत्रेय सम्प्रदाय।
सुश्रुत मतानुसार - धन्वन्तरि सम्प्रदाय।
उद्देश्य
आयुर्वेद का उद्देश्य ही स्वस्थ प्राणी के स्वास्थ्य
की रक्षा तथा रोगी की रोग से रक्षा है। (प्रयोजनं चास्य
स्वस्थस्य स्वास्थ्यरक्षणं आतुरस्यविकारप्रशमनं च)। आयुर्वेद के
दो उद्देश्य हैं :
1. स्वस्थ व्यक्तियों के स्वास्थ्य की रक्षा करना
2. रोगी व्यक्तियों के विकारों को दूर कर उन्हें स्वस्थ
बनाना

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